पिछली सरकार द्वारा किसानों द्वारा फसलों के दाम मांगने पर दमन की नीति अपनाने का विरोध करते हुए किसानों को उनकी फसलों के बेहतर मूल्य दिलाने का वचन भी दिया गया है । उसी क्रम में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद की पुख्ता व्यवस्था को भी इस जन घोषणा पत्र का अंश बनाया गया है। इसके उपरांत भी किसानों को उनकी उपजो के दाम दिलाने के संबंध में की गई कोई सार्थक कार्यवाही दिखाई नहीं देती है। प्रकृति की मार से शेष बची उपजो को उचित मूल्य तो मिलना तो दूर की कोडी है, वे तो सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी वंचित है। सरसों में एक वर्ष में एक क्विंटल पर 3000 रुपये की गिरावट आना अनहोनी घटना होते हुए भी किसानों के दर्द को साझा करने के लिए वक्तव्य भी नहीं दिया जाए इसे वचन निभाना तो नहीं कह सकते बल्कि वायदा खिलाफी से अवश्य संबोधित कर सकते हैं। निंदा आधारित राजनीति के आधार पर सत्ता प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों को छिपाने के लिए ही भ्रष्टाचार की जांच के विषय को प्रभावी ढंग से रखा जा रहा है। इस भ्रष्टाचार में भी व्यक्ति विशेष के भ्रष्टाचार को ही इंगित किया गया है जबकि भ्रष्टाचार किसी भी शासक या व्यक्ति का हो, उस में भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में कवि दुष्यंत की कविता , “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए । मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।” से राजनेता प्रेरणा लेते तो 6 अप्रैल को देश के आठ राज्यों के किसानो द्वारा नई दिल्ली जंतर मंतर पर किये गये सरसों -सत्याग्रह से उनके मन पिघलते । प्रक्रति की मार झेल रहे किसानो के आसुओ से वे द्रवित होते तथा कर्ज माफ़ नही होने के कारण समयपूर्व जीवन लीला समाप्त करने वाले किसानो के कारण उनकी आत्मा के अकुलाहट होती । अनशन का विषय किसानो के दर्द को साँझा करना होता तो पीड़ित किसान भी उनके साथ खड़े होते।