(लेखक: वेदव्यास)
भीमराव अंबेडकर का नाम स्वाधीन भारत में पराधीन समाज के मुक्ति संदेश के रूप में जाना जाता है। जैसा कि हमारे यहां होता आया है कि हमें अपना खुद का जन्मदिन मनाने की भी फुर्सत और सुध बुध नहीं है तथा हम राजकीय आयोजन और अवकाश को ही स्मृति का समारोह मान लेने के आदी हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय कैलेंडर में धर्म और संस्कृति के अवकाश में से जो भी दिन शेष बचते हैं, उनमें हम पूर्वजों के तर्पण के लिए बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं रहते। सब अपनी जात और पार्टी के नेताओं का जन्मदिन मनाते हैं और उन्हीं के आदर्शों को समय और संसार की आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास करते हैं। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर व्यक्तियों की जगह परंपरा, धार्मिक समागम और त्यौहार ही हमारे देश में अधिक प्रचलित हैं।
डाॅ. भीमराव अंबेडकर तो फिर महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू भी नहीं थे। उन्हें तो गुरु नानक और गुरु तेग बहादुर जैसा पंथ निर्माता भी नहीं माना जाता तथा न ही वे भगवान बुद्ध और तीर्थंकर महावीर की श्रेणी में ही आते हैं। अंबेडकर तो महज एक ऐसे जागरण दूत का नाम है, जो शताब्दियों से दलित और पीड़ित जाति से जन्म लेकर भी संविधान निर्माताओं की पंगत में बैठ गया था। उनका तो एक ही दर्शनशास्त्र था कि मनुष्य को समाज में जीवन विकास के समान अवसर मिलने चाहिए तथा जाति, धर्म, लिंग अथवा रंग के आधार पर उन्हें छोटा-बड़ा नहीं समझा जाना चाहिए। अतः दुनिया के जितने भी लोकतंत्र हैं उन सबके संविधान निर्माताओं में अंबेडकर के समतावाद की परछाई आपको अवश्य मिलेगी। लेकिन भ्रम और यर्थाथ ही मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है। भारतीय संविधान भी इसीलिए आदर्श और वास्तविकता का एक ऐसा ही दस्तावेज है, जिसकी दुहाई तो सभी लोग देते हैं और जिसकी कसमें भी सभी लोग खाते हैं किंतु उसे एक सामाजिक तथा राष्ट्रीय व्यवहार में वे कभी नहीं बदलने देते। अधिकार और कर्तव्य की इसी मिलन भावना का दूसरा नाम आज भीमराव अंबेडकर भी कहलाता है। आप उन्हें जानते हैं क्या?
डाॅ. अंबेडकर को पढ़े-लिखे ‘शासक भावना‘ के लोग इसलिए जानते हैं कि उन्होंने छुआछूत को मिटाने का तथा जाति के आधार पर शोषण समाप्त करने का बिगुल उन लोगों के लिए बजाया था जो शताब्दियों से गूंगे-बहरे की तरह जी रहे हैं। तथा करोड़ों तरह के भगवान इस भारत भूमि पर अवतार लेकर भी उनके दुख नहीं मिटा सके तथा वे इस जन्म को भी पूर्व जन्म का फल ही समझते हैं। इसी संदर्भ में आपको याद दिलाना चाहूंगा कि मनुष्य, समाज, देश और धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी उसके भीतरी अन्तर्विरोध ही होते हैं। जहां भी यह भीतरी भेद कम होंगे, वह समाज स्वस्थ और विकसीत होगा। भीमराव अंबेडकर इसी सुधारवादी आंदोलन के नवीनतम संस्करण थे और जिनकी संपूर्ण प्रेरणा भारत के भक्ति आंदोलन में छिपी हुई थी। इतिहास के इस पृष्ठ को हम आज भी जितना महत्व और सम्मान दिया जाना चाहिए वैसा नहीं दे रहे हैं तथा यही कारण है कि अंबेडकर को भी हमने एक जातीय चेतना का प्रतिनिधि मान लिया है।
भारत का समाज शताब्दियों से चेतना और व्यवहार के स्तर पर विभाजित रहा है तथा इस खाई को पाटने के प्रयास में अब तक लाखों ऋषि-मुनि, पीर-पैगम्बर, गुरु-ज्ञानी और पूर्णावतार समय की गंगा में प्रवाहित हो चुके हैं। बल्कि जैसे-जैसे विभाजन की यह नदी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे हमारे सभी वेद-पुराण एक संकीर्ण प्रकाशवाद के पर्याय मान लिए जाते हैं। जबकि वस्तुगत सत्य यह है कि हमारा समाज मूलतः समता और सहिष्णुता का पर्याय रहा है तथा मनुष्य को ही केंद्रीय शक्ति मानकर सभी तरह की रचनाओं की सृष्टि की गई है तथा यहां मनुष्य को ही केंद्रीय शक्ति मानकर सभी तरह की रचनाओं की सृष्टि की गई है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अब ज्ञान और धर्म की नींव में से मनुष्य का स्थान निकालकर फेंक दिया गया है तथा मनुष्य का स्थान अब साधन और भौतिक शक्तियों ने ले लिया है। इसलिए तुलसीदास के शब्दों में सबहूं नचावत राम गुसाई। अर्थात-सबके नचाने वाले राम ही हैं और यह राम अब हमारी सांसारिक इच्छाएं पूरी करने की शक्ति मात्र बन गया है।
कुछ लोग भीमराव अंबेडकर को सचिवालय, विधानसभा और न्यायालय में ढूंढ रहे हैं। यह एक ऐसी तलाश है जो रंक को राजा में तथा शूद्र को सवर्ण में बदल देती है। आजादी के बाद जिस तरह आजादी के शहीदों को भुला दिया गया उसी तरह संविधान बनने के बाद भीमराव अंबेडकर को भी सबसे पहले तिरस्कृत किया गया। क्या कोई बता सकता है कि अंबेडकर केवल दलितों (अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ी जाति) के अगुवा ही क्यों माने जाते हैं? उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि समाज की सभी जातियां मिलकर क्यों नहीं मनातीं? जब कुछ पुरातनपंथी मिलकर एक मनु को देश का अंतिम संविधान निर्माता क्यों नहीं मान सकते। यही एक सोच का अंतर है, जो हमारे समाज की विभाजन रेखा है तथा यह रेखा इतनी धारदार है कि इसने हमारे संस्कार, विचार, व्यवहार तथा सरकार को गहरे तक काट रखा है।
मुझे भीमराव अंबेडकर की याद उसी तरह रोज आती है, जिस तरह मैं संत कबीर, तुकाराम, गौतम बुद्ध और महावीर को याद करता हूं। क्योंकि हमारे समाज की चादर में हजारों साल से जो सलवटें पड़ी हुई हैं उन पर अंबेडकर की आत्मा के निशान हैं। अंबेडकर तो एक विचार और भावना का नाम है, जो मनुष्य के जन्म से उसके साथ जुड़ी हुई है। सरकार द्वारा अंबेडकर की याद में किसी एक दिन छुट्टी करना मेरे लिए तो इसलिए भी महत्व नहीं रखता कि जब-जब किसी महान आत्मा के नाम पर राजकीय अवकाश हुआ है तब-तब दिन उसको भुलाने का समय साबित हुआ है तथा एक पुण्य स्मरण भी मौजमस्ती में बदल गया है। जब लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध भी भय और आशीर्वाद के लिए करते है तो फिर सामाजिक नायकों का स्मरण करना उनकी कोई मजबूरी नहीं हो सकता। हम खुद अपनी सुविधा के लिए महानता को भी एक मजाक बना देते हैं।
भीमराव अंबेडकर तो एक ऐसा विषय है, जिसे आप पढ़कर और सुनकर नहीं समझ सकते। इसके लिए तो आपको आचरण और आस्था की प्रयोगशाला में जाना पड़ेगा। जो लोग बात-बात में अपनी जनेऊ दिखाते हैं, राजकीय सेवा नियमों की तलवारें चलाते हैं, लोकतंत्र के नसबंदी कैम्प लगवाते हैं, सर्वधर्म समभाव को इतिहास का ढोंग बताते हैं और समतावाद को भाग्य तथा नियति के तराजू में बांटते हैं उन्हें भला अंबेडकर और आदमी से क्या लेना-देना। जिस तरह जनता पहले शासन को बनाती है किंतु वही शासन फिर बदले में उसे ही चलाता है तो ठीक उसी तरह आस्था और विश्वास भी पहले किसी मूर्ति को गढ़ते हैं तथा फिर वही मूर्ति अपने चारों तरह उसी मनुष्य से लगातार परिक्रमा भी लगवाती है। भीमराव अंबेडकर इन सारी दुविधाओं से मुक्त होकर ही हमारे लिए सहायक हो सकते हैं तथा यह साकार और निराकर की माया सभी देवताओं, महान आत्माओं तथा युग पुरुषों पर एक ही समान तरह से लागू होती है।
यह समाज तो एक प्याज की तरह है जिसे छिलके-दर-छिलके उघाड़ते जाइए तब कहीं जाकर आपको इसके सत्य का साक्षात्कार हो पाएगा। जिस तरह माध्यम से मकसद बड़ा होता है, उसी तरह जन्मदिन तथा पुण्यतिथि से तो मनुष्य ही बड़ा होता है। यदि मनुष्य ही नहीं होता तो यह समाज क्या पषु-पक्षियों का जन्मदिन मनाता? अतः अंबेडकर अथवा ऐसे ही किसी आदर्श पुरुष को याद करने से पहले हमें उस ‘भारतीय आत्मा‘ का स्मरण करना चाहिए, जो वेद और पुराण का आलोक में भी ‘कुंभी पाक‘ नरक का सुख भोग रही है। इसीलिए तो कहा जाता है कि जब तक इस समाज में मनुष्य और मनुष्य के भेद-विभेद और मतभेद रहेंगे (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक) तब तक अंबेडकर हमारे लिए प्रासंगिक रहेंगे। यही कारण है कि हम शताब्दियां मना कर भी एक दूसरा विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, महात्मा गांधी अथवा अंबेडकर पैदा नहीं कर सकते।